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दीपावली का पावन पर्व

प्रत्येक देश में पर्वों के मनाने की परम्परा प्राचीनकाल से ही चली आ रही है। मनुष्य उत्सवप्रेमी होता है। वह जहॉं भी रहता है, वहॉं कोई न कोई उत्सव अवश्य मनाया जाता है। प्राकृतिक और ऐतिहासिक रूप से पर्व (त्यौहार) के दो रूप होते हैं। कुछ पर्व प्राकृतिक रूप से नित्य घटने वाली घटनाओं के कारण से मनाये जाते हैं और किन्हीं त्यौहारों का कारण कोई ऐतिहासिक घटना बन जाती है तथा कुछ पर्व ऐसे होते हैं, जिनमें दोनों घटनाओं का सम्मिश्रण हो जाता है। प्रत्येक पर्व अपना धार्मिक, सामाजिक और ऐतिहासिक महत्व रखता है। हमारे देश में समय-समय पर अनेक पर्व मनाये जाते हैं। जैसे- श्रावणी, कृष्णजन्माष्टमी, विजयादशमी, मकरसंक्रान्ति, होली इत्यादि। हमारे त्यौहारों में एक प्रमुख त्यौहार दीपावली भी है। भारत की जनता में इस उत्सव का विशेष महत्व है।

दीपावली पर्व शरद ऋतु के आरम्भ में कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की अमावस्या को मनाया जाता है। पूरे साल में एक शाम ऐसी आती हैकि जब पूरा देश रोशनी में डूब जाता है। यह सही है कि दिये अब भी रोशन होते हैं, लेकिन कम। उनका स्थान बिजली के लुपछुप करने वाले रंगीन बल्ब ले चुके हैं। बहरहाल तैल खर्च हो या करेंट, दीपावली के उत्साह और जोश में कोई फर्क नहीं पड़ता।

यह पर्व भारत के कोने-कोने में अपनी भावनाओं के अनुसार अनेक कारणों से मनाया जाता है। जैसे- दानवेन्द्र बलि का विष्णु को भूमि दान, महाकाली का भगवान्‌ शंकर के स्पर्श से क्रोधाग्नि शान्त, रामचन्द्र जी द्वारा लंका के राजा रावण का वध करने के बाद अयोध्या आगमन, भगवान श्रीकृष्ण द्वारा नरकासुर का वध, भगवान्‌ विष्णु द्वारा नरसिंह का रूप धारण कर हिरण्यकशिपु का वध, 24वें जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी का निर्वांण, स्वामी संकराचार्य का जन्म, स्वामी रामतीर्थ का जन्म आदि। ये मुख्य कारण हैं- जिनके द्वारा महाभारत के बाद दीपावली के वास्तविक स्वरूप को छोड़कर अनेक कपोल-कल्पित और कुछ ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर दीपावली का त्यौहार मनाया जाने लगा।  दीपावली को "महर्षि दयानन्द बलिदान दिवस' के रूप में भी मनाया जाता है। क्योंकि इसी दिन वेदों के पुनरुद्धारक महर्षि दयानन्द सरस्वती का बलिदान हुआ था।

दीपावली के पर्व को प्राचीनकाल से मनाने का एक विशेष कारण यह रहा है कि वर्षा ऋतु जा चुकी है, सर्दी की ऋतु आ गई है। वर्षा ऋतु में वर्षा होने के कारण पानी भर जाता है, गन्दगी भी बढ़ जाती है, मकानों में नमी आ जाती है, अनेक कीटाणु पैदा हो जाते हैं। नये अन्न भी आ जाते हैं। सर्दी की ऋतु तथा नये अन्न की खुशी में और मकानों तथा सभी स्थानों की शुद्धि के लिये दीपावली का पावन पर्व मनाया जाता है। पटाखों की धूमधड़ाक से वातावरण हफ्तों पहले से गूंजना शुरू हो जाता है। दीपावली वाले दिन अच्छे-अच्छे पकवान बनाये जाते हैं। मकानों को सफाई करके सजाया जाता है। कैंडूल लगाये जाते हैं। उनके अन्दर मोमबत्ती या बल्ब लगाये जाते हैं। आतिशबाजियां, पटाखे छुड़ाये जाते हैं।

दीपावली का यह त्यौहार आता है हमें सन्देश देने के लिए। तमसो मा ज्योतिर्गमय । हम प्रकाश की ओर बढ़ें । यह प्राकृतिक परिवर्तन हमें प्रेरणा दे रहा है कि यदि हमारे जीवन में कुछ दोष आ जाते हैं तो उन दोषों का अन्त कर दें और अपने जीवन में एक नवनिर्माण की क्रान्ति लायें। दीपावली के समय लोग अपने घरों को साफ करते हैं। सफेदी और उज्ज्वल करते हैं, दीपक जलाते हैं। पर क्या इसी तरह हमारे अपने संस्कारों पर, हमारे अपने आचरण में अनेक बुराइयां आ जाती हैं, क्या उसे भी नहीं साफ कर लेना चाहिए ?

दीवारों पर रखे दीपक आज वास्तव में हमें अपने अन्दर रखने की आवश्यकता है। क्योंकि हम अपनी संस्कृति, अपने संस्कार और अपने राष्ट्र को स्वयं गुमराह करते जा रहे हैं। अनजाने में नहीं, जानते हुए। यदि समय के रहते हुए हम जागृत न हुए तो जिस प्रकार दीपावली की रात को जले दीपकों का धुआं, दीपकों के बुझते ही और भी अधिक अंधकार फैला देता है, वैसे ही एक दिन हमारे चारों तरफ कुसंस्कारों का धुआं फैल जाएगा। हम हर वर्ष दीपावली के दिन हजारों दीपक जलाते हैं, परन्तु फिर भी आज अंधेरे में भटक रहे हैं।

हम हर वर्ष दीपक तो जलाते हैं पर क्यों? यह जानने की कभी कोशिश नहीं करते । लेकिन आज दीपावली के दिन हमें इस क्यों का उत्तर अवश्य खोजना होगा। प्रातः होने से पहले हमें इस अंधकार को मिटाने की कोशिश करनी होगी। यदि अंधकार मिटाने से पहले प्रातः हो गया तो इतिहास हमें मिटा देगा। संस्कृतिरूपी लौ जीवन में ज्योति के रूप में जलती रहे तभी ठीक है।

दीपावली के दिन कुछ लोग लक्ष्मी की पूजा करते हैं और रात को अपने मकान के फाटक खुले छोड़ देते हैं। उनकी धारणा है कि लक्ष्मी आयेगी और उन्हें धनवान कर देगी। अगर फाटक बन्द रखोगे तो लक्ष्मी फाटक को बन्द हुआ देखकर वापिस लौट जायेगी। लेकिन होता है इसका उल्टा। लक्ष्मी तो आती नहीं, किन्तु आज के लक्ष्मण आ जाते हैं, आप समझ गये होंगे.......चोर। चोर आ जाते हैं और घर का सभी कुछ लूटकर ले जाते हैं। लेकिन लक्ष्मी पूजा का वास्तविक अर्थ क्या होता है इसे समझने की कोशिश नहीं करते। लक्ष्मी का वास्तविक स्वरूप सुधन होता है। लक्ष्मी को कमल के फूल पर विराजमान दिखाया गया है, जिसका तात्पर्य यह है कि चाहे धन कितना भी कमा ले, लेकिन धन में लिप्त न हो। कमल के फूल की भांति निर्लेप रहे और धन जितना भी कमाये वह पवित्र कमाई का हो, गलत कमाई का न हो। कवि ने बड़ा ही सुन्दर लिखा है-

धन खूब कमा आनन्द मना,

पर ऐसा कोई काम न कर।

अपना घर-बार बनाने को,

औरों का घर बर्बाद न कर।।

दीपावली के दिन कुछ लोग जुआ खेलते हैं तथा शराब पीते हैं। जो व्यक्ति जुआ खेलते हैं उनके सम्बन्ध में वेद ने कहा हैः- अक्षैर्मा दीव्यः। अर्थात्‌ "जुआ मत खेल।' परन्तु लोग त्यौहार की आड़ में जुआ खेलकर श्रम किए बिना धन को थोड़ी सी देर में प्राप्त करना चाहते हैं। लेकिन ऐसा सम्भव नहीं है। जो लोग शराब पीते हैं, उनके लिए हमारे सभी वेदशास्त्रों, धार्मिक ग्रन्थों तथा महापुरुषों ने शराब न पीने की चेतावनी दी है। महात्मा बुद्ध ने कहा था- "शराब से सदा भयभीत रहना, क्योंकि वह पाप और अनाचार की जननी है।'' बात वास्तविक है, क्योंकि ऐसा कौन सा पाप है जो शराब पीने वाले से न होता हो और महर्षि दयानन्द जी ने तो शार्ङ्‌गधर संहिता का उदाहरण देते हुए यहॉं तक लिखा हैः- "बुद्धिं लुम्पति यद्‌ द्रव्यं मदकारि तदुच्यते' अर्थात्‌ जो बुद्धि का नाश करती हो उस वस्तु का सेवन नहीं करना चाहिए।

जुआ खेलना और शराब पीना त्यौहार मनाने का कौन सा तरीका है? यह तो अपने आपमें अपने अन्दर जमा एक प्रकार का अन्धकार है। प्रकाश के सामने भी यदि यह अन्धकार खुलकर मनमानी करता रहा तो इसका नाश कैसे होगा? ज्योति के सन्देशवाहक ये दीपक तुम्हारे घर में, गली में प्रकाश का सन्देश लेकर आए हैं । इन दीपकों को अपने अन्तरतम की गहराई में उतारकर देखो। एक दीपक वहॉं भी जलाओ, जिसकी शिखा पीढ़ियों तक जलती रहे।

दीपावली किसी एक का पर्व नहीं है। अतः हमें दीपावली के पर्व को उसी वास्तविक रूप में मनाना चाहिये, जिस उद्देश्य को लेकर दीपावली का पावन पर्व प्राचीन समय से मनाया जाता रहा है। -यशवीर, दिव्ययुग अक्टूबर 2008 (Divya Yug 2008)

 

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