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अशान्ति की अचूक दवा-2

कामनाओं का नियन्त्रण 


भोगासक मनुष्य भोग से तृप्त और संतुष्ट होना चाहे तो वह कभी नहीं हो सका। महर्षि मनु ने इस सम्बन्ध में एक बहुत सुन्दर मनोवैज्ञानिक बात कही है 
न जातु कामः कामनां उपभोगेन शम्मति। 
हनिषा कृष्णवर्त्मेव भूम एवाभिवर्धत॥ 
(मनु 2.44)
अर्थात कामियों की इच्छाएँ कभी भी भोग से शान्त नहीं होतीं अपितु जैसे घी डालने से अग्नि और भड़कती है वैसी ही भोग इच्छाएँ और भी प्रभल होती जाती हैं। ठीक इसी प्रकार मनुष्य की बहुरंगी इच्छाएँ सांसारिक वस्तुओं के संग्रह करने मात्र से तृप्त नहीं होतीं। 
हजारों ख्वाइशें ऐसे कि 
हर ख्वाइश पै दम निकले। 
बहुत निकले मेरे अरमान
लेकिन फिर भी कम निकले॥ 
यही नहीं इच्छाओं की अपूर्ति की अवस्था में मन बड़ा अशान्त रहता है और सकून और शान्ति उससे कोसों दूर रहती है। हिन्दी के किसी कवि ने बड़ा ही सुन्दर कहा है - 
तृष्णा अग्नि प्रलय की, 
तृप्त कबहुं न होय। 
सुर, नर, मुनि और रंक सब, 
भस्म करत हैं सोय॥ 
सचमुच तृष्णा की अग्नि नरक की विकराल अग्नि के समान है, जो जो राजा हो या रंक, मुनि हो या साधारण व्यक्ति सबको भस्मीभूत कर देती है। इस प्रकार इन इच्छाओं का तार बँधा रहता है जो कभी टूटने ममें नहीं आता। जीवन समाप्त हो जाता है परन्तु इनका अन्त नहीं होता।

प्रसिद्ध नीतिकार भर्तृहरि ने ठीक ही तो कहा है- 
भोगा न भुक्ता वयमेव न भुक्ताः 
तपो न तृप्तं वयमेव तप्ताः । 
कालो न याओ वयमेव याताः, 
तृष्रा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥ 
यह तृष्णा शान्त क्या होगी, सदैव तरूण रहती है। भर्तृहरि ने इस सम्बन्ध में बड़ा सुन्दर कहा है- 
वलिभिर्मुख माक्रान्तं 
पलितैरड्कितं शिरः । 
गात्राणि शिथिलामन्ते 
तृष्णैका तररुणामन्ते। 
ये असुरी कामनाएँ न केवल इस जीवन में हमारे विनाश का कारण सिद्ध होती है। अपितु हमारे आने वाले जीवन को सुखद बनाने में बाधक भी होती है। कुरान मजीद में लिखा है कि कयामत के दिन जब खुदा नरक की आग से पूछेगा कि क्या तेरी तृप्ति हो चुकी है तो वह भी यही कहेगी। 
नहीं और लाओ और अधिक लाओ 
अतः जो लोग दुर्भाग्यवश इन वासनाओं का शिकार हो जाते हैं। उनको जीवनभर शान्ति प्राप्त नहीं होती। किसी ने भजन की एक कड़ी में सुन्दर बात कही है- 
सच्ची खुशी से रहते हैं, 
सदा वे दूर-दूर। 
मन जिनका विषय भोग में, 
हों वे फँसा हुआ॥ 
तो प्रश्‍न पैदा होता है क्या इच्छाओं से नितान्त मुक्त होना सम्भव भी है। उत्तर स्पष्ट है नहीं। 
क्योंक्ि भगवान की इस शरीररूपी अद्भुत रचना मेें मन और इन्द्रियों के रूप में अवयव रखे हैं वही वास्तव में इन इच्छाओं के स्रोत हैं और यह भी सत्य है कि प्रजापति की इस सृष्टि में कोई भी जड़-चेतन पदार्थ का निष्प्रयोजन नहीं है। अतः मनुष्य में इच्छाओं का होना स्वाभाविक ही नहीं अपितु सृष्टि के नियमों के सर्वदा अनुकूल है। संसार में प्रभु की जान के सिवाय और कोई भी प्राणधारी नहीं है जो अपने को कामनारहित कह सके। उसी ही जगत नियन्ता को अथर्ववेद में अकामोधरि कहा है। जनसाधारण की तो बात ही क्या, बड़े-बड़े तपस्वी, सन्त, महात्मा और सन्यासी भी इन कामनाओं का शिकार हुए बिना नहीं रहे। वेद में स्थान-स्थान पर जीव भगवान से अपनी इच्छाओं को पूर्ति के लिए प्रार्थना करते हुए दिखता है- 
(क) अस्य स्तोतुः मघवन् कामनापृण। 
(ख) यत्कामास्ते जुहुमस्न्नो अस्तु। 
जैसा कि पहले कहा जा चुका है इच्छाओं का सर्वदा छोड़ना सम्भव नहीं और न ही सभी इच्छाओं की पूर्ति सम्भव है। अतः अपूर्ति की अवस्था में क्रोध और दुःख की बाढ़ को रोकने में ही शान्ति है। अच्छे-अच्छे स्वादिष्ट भोजनों को अत्यधिक मात्रा में खाने से जहाँ रोगग्रस्त होने की आशंका होती है। वहाँ उनको सर्वथा छोड़ने से भी तो शान्ति नहीं होती। अतः संयम से मार्यादा में रहकर ही उनका उपभोग लाभकारी और शान्तिप्रद होगा। अतः संयम का जीवन ही खुशी देने वाला होता है। महर्षि मनु ने सयंम को अपनाने का ही उपदेश दिया है ः 
इन्द्रियाणां तिचरतां 
विषयेष्वपहारिषु। 
संयमे यत्नातिष्टेद्वि 
द्वान्यन्तेव वाजिनाम्॥ मनु. 2।88। 
परन्तु अपने चहुँओर दृष्टिपात करने से तो पता चला है कि मानो जैसे समाज-राष्ट्र में सयंम का बाँध ही टूट गया हो और स्वार्थ, अनाचार, दुराचार, भ्रष्टाचार की भीषण बाढ़ सी आ गई हो। जीवन का कोई भी क्षेत्र इसके प्रभाव से बचा नहीं है। राजनीतिक क्षेत्र में जिसकी छाप आज हमारेे जीवनों पर लगी है। कोई काल था जब हमारे जीवनों में राजनीति की दूषित मछाप के स्थान पर धर्म-सदाचार की पवित्र छाप लगी थी। जहाँ सबसे अधिक घोर भ्रष्टाचार व्याप रहा है। इसके अनेक कारणों में से मुख्य कारण अपनी प्राचीन संस्कृति के मूल्यों की अवहेलना है और पाश्‍चात्य एकमात्र भौतिक संस्कृति का अन्धानुकरण है। हमारे धर्मग्रन्थों में तो इन्द्रियों का असंयम ही सब दोषों का मूल कारण कहा गया है ः 
सर्वे दोषेषु मुख्यो अयमेव यदिन्द्रियमाणामसंयमः। 
इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब-जब राजाओं-शासकों ने स्वछन्दता के कारण अपनी इन्द्रियरूपी घोड़ों को भोगविलास के घने वन में स्वतन्त्र रूप से विचरने दिया, तभी राष्ट्र-समाज और देश रसातल को प्राप्त हुआ। असंयम से उत्पन्न अनाचार, दुराचार तथा भ्रष्टाचार ऐसे संक्रामक रोग हैं, जो बहुत जल्दी ही सर्वत्र व्याप जाते हैं और सर्वनाश का कारण बन जाते हैं। दरिया जब मर्यादा में बहता है जो ठीक; परन्तु जब किनारों को लांघकर बाढ़ का रूप धारण करता है तो वह जन, धन, यश, जमाने-मकानों के नाश का कारण बन जाता है। इच्छाओं को संयम में करने के लिए कुछ भौतिक प्रलोभनों का परित्याग करना होगा। त्याग से ही तो शांति मिलती है, नहीं-नहीं इससे भगवान मिलते हैं ः
त्यागाच्छान्ति निर्रन्तरम्। 
त्यागेनैन्देन अमृतरव मानशुः ॥ 
इसलिए हे मानव! यदि तू सुख और शान्ति चाहता है तो अपनी आवश्यकताओं और बढ़ती हुई इच्छाओं को नियन्त्रित करके तृष्णा पिशाचिनी के फंदे से मुक्त हो जा। मनरूपी पक्षी तभी तक तृष्णारूप आकाश में उड़ता है जब तक वह संयम रूपी बाज की झपट में नहीं सुख और शांति के इच्छुकों को स्वामी रामतीर्थ का यही तो उपदेश था- 
Be above desires
अर्थात यथासम्भव अपनी इच्छाओं को कम करो और इसके परिणामस्वरूप मन की चंचलता को रोक सकेगा और शांति को पाएगा। किसी ने भजन की एक कड़ी में बड़ा ठीक कहा है- 
मन की चचंलता को प्यारे लाम तू। 
फिर पाएगा दुनिया में आराम तू॥ 
अतः वर्तमान में, देश में व्याप्त अशान्ति, बेचैनी और हायतौबा की स्थिति में अपनी बढ़ती हुई इच्छाओं और अनावश्यक आवश्यकताओं को नियन्त्रित करना ही सच्ची देशसेवा होगी और यही देशव्यापी अनाचार, दुराचार और भ्रष्टाचार आदि सामाजिक रोगों की अचूक दवा भी है।  - चमनलाल

 

 

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