ओ3म् महीरस्य प्रणीतय पूर्वीरुत प्रशस्तयः।
नास्य क्षीयन्त ऊतयः।। ऋग्वेद 6.45.3
ऋषिः- बार्हस्पत्य शंयुः।। देवता-इन्द्रः।। छन्दः-गायत्री।।
विनय - मैं क्या बतलाऊँ, प्रभु किन-किन अद्भुत ढङ्गों से मनुष्य को उन्नत कर रहे हैं। जब मनुष्य रोता और पीटता रहता है, जब उसके अन्दर ऐसे युद्ध चल रहे होते हैं कि उसे विफलता पर विफलता ही मिलती जाती है। पीछे से पता लगता है कि उस समय में, उन्हीं दिनों में उसने अपनी उन्नति का बड़ा रास्ता तय कर लिया होता है। मनुष्य प्रभु की कल्याणमयी घटनाओं को नहीं समझ पाता कि उन घटनाओें से कभी सुदूर भविष्य में उसका कल्याण कैसे सधेगा। प्रभु के उन्नत करने वाले मार्ग इतने महान् और विशाल हैं कि अल्पदृष्टि मनुष्य उन्हें पूर्णता में कभी नहीं देख सकता। अतएव वह कल्याण की ओर जाता हुआ भी घबराया रहता है। प्रत्येक मनुष्य अपनी-अपनी प्रकृति-स्वभाव के अनुसार अपने-अपने निराले ढंग से उन्नत व विकसित हो रहा है। जब मनुष्य अपने ही उन्नति-मार्ग को नहीं समझ पाता, तो उसके लिए दूसरे मनुष्यों के विकास का दावा भरना कितना कठिन साहस है। उस अगम्य लीला वाले प्रभु की जिस "प्रणीति' से जिस व्यक्ति ने उन्नति पायी होती है, वह व्यक्ति उसी रूप में उस प्रभु के गीत गाता फिरता है। इस तरह अनादिकाल से मनुष्य नाना प्रकार से उसकी प्रशस्तियॉं गाते आ रहे हैं और गाते रहेंगे।
मनुष्य उसकी स्तुतियों का कैसे पार पावें? भक्त पुरुष तो उस प्रभु की रक्षाओं का, रक्षा के प्रकारों का ही अन्त नहीं देखता। प्रभु की रक्षण-शक्ति कभी क्षीण नहीं होती। वहॉं से रक्षणों का एक ऐसा सनातन प्रवाह बह रहा है कि वह सब मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंगों की तथा सब स्थावर और अस्थावर जगत् की एक ही समय में अकल्पनीय तरीकों से रक्षा कर रहा है। मनुष्य अपने पिछले कुछ अनुभवों के आधार पर सोचता है कि ऐसा होने से मेरी रक्षा हो जाएगी। अतः वह वैसा ही होने की प्रभु से प्रार्थना करता है और वैसी ही आशा करता है। पर इस बार प्रभु एक बिलकुल नये मार्ग से रक्षा करके मनुष्य को आश्चर्यचकित कर देते हैं। इस प्रकार नये-से-नये अकल्पनीय ढंगों से मनुष्य को प्रभु का रक्षण मिलता जाता है। तब पता लगता है कि प्रभु संसार का सब प्रकार से कल्याण ही कर रहे हैं। हम मानें या न मानें, पर वे तो हमें मारते हुए भी हमारी रक्षा कर रहे हैं। अहो देखो! उस प्रभु के उन्नति-मार्ग महान् हैं। उसकी रक्षा के प्रकार अनन्त हैं। जाननेवाला सब संसार उसकी स्तुतियॉं-ही-स्तुतियॉं गाता है।
शब्दार्थ- अस्य=इस परमेश्वर के प्रणीतयः=आगे ले-जाने के, उन्नत करने के मार्ग महीः=बड़े हैं उतः प्रशस्तयः पूर्वीः = और इसकी प्रशंसाएँ सनातन हैं अस्य ऊतयः न क्षीयन्ते = इसकी रक्षाएँ कभी क्षीण नहीं होती। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
दिव्य युग अगस्त 2009 इन्दौर, Divya yug August 2009 Indore
जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
भारत देश की गुलामी के कारण
Ved Katha Pravachan - 48 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
Hindu Vishwa | Divya Manav Mission | Vedas | Hinduism | Hindutva | Ved | Vedas in Hindi | Vaidik Hindu Dharma | Ved Puran | Veda Upanishads | Acharya Dr Sanjay Dev | Divya Yug | Divyayug | Rigveda | Yajurveda | Samveda | Atharvaveda | Vedic Culture | Sanatan Dharma | Indore MP India | Indore Madhya Pradesh | Explanation of Vedas | Vedas explain in Hindi | Ved Mandir | Gayatri Mantra | Mantras | Pravachan | Satsang | Arya Rishi Maharshi | Gurukul | Vedic Management System | Hindu Matrimony | Ved Gyan DVD | Hindu Religious Books | Hindi Magazine | Vishwa Hindu | Hindi vishwa | वेद | दिव्य मानव मिशन | दिव्ययुग | दिव्य युग | वैदिक धर्म | दर्शन | संस्कृति | मंदिर इंदौर मध्य प्रदेश | आचार्य डॉ. संजय देव