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Arya Samaj Indore - 9302101186. Arya Samaj Annapurna Indore |  धोखाधड़ी से बचें। Arya Samaj, Arya Samaj Mandir तथा Arya Samaj Marriage Booking और इससे मिलते-जुलते नामों से Internet पर अनेक फर्जी वेबसाईट एवं गुमराह करने वाले आकर्षक विज्ञापन प्रसारित हो रहे हैं। अत: जनहित में सूचना दी जाती है कि इनसे आर्यसमाज विधि से विवाह संस्कार व्यवस्था अथवा अन्य किसी भी प्रकार का व्यवहार करते समय यह पूरी तरह सुनिश्चित कर लें कि इनके द्वारा किया जा रहा कार्य पूरी तरह वैधानिक है अथवा नहीं। "आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी अन्नपूर्णा इन्दौर" अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट द्वारा संचालित इन्दौर में एकमात्र मन्दिर है। भारतीय पब्लिक ट्रस्ट एक्ट (Indian Public Trust Act) के अन्तर्गत पंजीकृत अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट एक शैक्षणिक-सामाजिक-धार्मिक-पारमार्थिक ट्रस्ट है। आर्यसमाज मन्दिर बैंक कालोनी के अतिरिक्त इन्दौर में अखिल भारत आर्यसमाज ट्रस्ट की अन्य कोई शाखा या आर्यसमाज मन्दिर नहीं है। Arya Samaj Mandir Bank Colony Annapurna Indore is run under aegis of Akhil Bharat Arya Samaj Trust. Akhil Bharat Arya Samaj Trust is an Eduactional, Social, Religious and Charitable Trust Registered under Indian Public Trust Act. Arya Samaj Mandir Annapurna Indore is the only Mandir controlled by Akhil Bharat Arya Samaj Trust in Indore. We do not have any other branch or Centre in Indore. Kindly ensure that you are solemnising your marriage with a registered organisation and do not get mislead by large Buildings or Hall.
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मातृदेवो भव! पितृदेवो भव! आचार्य देवो भव!-1

      पत्थर दिल को भी द्रवित कर देने वाली सत्य घटना

माता, पिता और आचार्य को देव समझने वाली इस भव्य भारतीय संस्कृति का जितना गुणानुवाद गाया जाये, उतना कम ही है। परन्तु इस कराल काल में जहॉं भौतिकवाद के प्रवाह में व्यक्तिवादी, भोगवादी तथा स्वार्थपरायणता का ताण्डव नृत्य हो रहा है, वहॉं मानव जीवन में इन दिव्य और उदात्त विचारों के लिये स्थान ही कहॉं है?

कदाचित्‌ कुछ संस्कारी परिवार अपने बालकों में "मातृदेवो भव! पितृदेवो भव! आचार्यदेवो भव!' के विचारोें का सिंचन करते भी होंगे। परन्तु समाज के विचारवान और तथाकथित शिक्षित वर्ग इस उहापोह में हैं कि इन विचारों को सामाजिक प्राधान्य दिया जाये या नहीं ? इन बुद्धिवादी लोगों के बहरे कानों में माता-पिता के वात्सल्य की आतुर धड़कन कहॉं से और कैसे पहुंचे? इसी प्रकार भोग-जीवन को ही सर्वस्व समझने वाले पशुतुल्य भोगवादी लोगों में पुत्र के दिव्य और भव्य स्नेह की अनुभूति लेने की शक्ति कहॉं है?

आज से सत्तर-अस्सी वर्ष पूर्व की एक सत्य घटना है। रत्नागिरी जिले में राजापुर नाम के एक छोटे से गॉंव में एक ब्रह्मवृत्ति (पुरोहिताई) करने वाला ब्राह्मण रहता था, जो सत्यनारायण की कथा बॉंचकर अपने तीन व्यक्तियों के सीमित परिवार का योगक्षेम (निर्वाह) चलाता था। उसकी छोटी सी झोंपड़ी के चारों ओर एक छोटी सी बगिया थी, जिसमें पॉंच-चार नारियल, इतने ही सुपारी और एक-दो आम के पेड़ थे। इन पेड़ों से ब्राह्मण परिवार को बहुत बड़ा प्रेम था। ब्राह्मण अपनी पुरोहिताई से बचे हुये समय को उनकी देखभाल में व्यतीत करता था।  

ब्राह्मण का अत्यन्त चतुर और कुशाग्र बुद्धि वाला एकमात्र पुत्र था। वह अपने मॉं-बाप की आँखों का तारा था। मॉं उसे प्रेम से राजा कहती थी, परन्तु राजसी वैभव के स्थान पर कंगालियत ही उनका वैभव था। पिता की इच्छा था कि उसका बेटा खूब पढ़ लिखकर बड़ा आदमी बने, सर्वमान्य बने और खूब नाम कमावे। मॉं भी कहती थी कि मेरा राजा कलट्टर (कलेक्टर) बनेगा। उसका बंगला, गाड़ी और नौकर-चाकर होंगे, खूब रुपया कमायेगा और हमारे दुःख के दिन चले जायेंगे। वह सुनहरे स्वप्नों में खो जाती थी। प्रत्येक मॉं-बाप की यही कामना होती है।

पिता कहता था- ""अरी! अभी उसे मैट्रिक तो हो लेने दे।'' और उसे स्वप्नों की दुनिया से वास्तविकता की भूमि पर ले आता था। ब्राह्मण अपनी छोटी सी बगिया को सींचते हुए बेटे से कहता- ""राजा! वृक्ष हमारे जीवन हैं, तू उनके पास बैठेगा तो वह तुझे जीवन का गाम्भीर्य समझायेंगे। उनके पास बैठना और निसर्ग का आनन्द लेना चाहिये। पेड़ों को पानी पिलाये बिना खाना नहीं खाना चाहिये। न जाने कब मेरी आँख बन्द हो जाएं, इसलिए तुझे पहिले से ही समझा रहा हूँ।''

अशिक्षित पिता ने एक आम के वृक्ष की ओर उंगली करते हुये कहा- ""बेटा! आज से लगभग तीस वर्ष पूर्व मेरे पिता ने जिस समय मैं तेरी ही उम्र का था, एक आम की गुठली बोई थी, जिसने पत्थरों को तोड़कर भूमि में अपनी जड़ों को मजबूत किया तथा वर्षा, आंधी, तूफान आदि अनेक मुसीबतों और संकटों के विरुद्ध सतत संघर्ष कर एक विशाल वृक्ष का रूप धारण किया है। आज वह थके हुये शान्त मानव को अपनी घनी छाया में आश्रय और खाने के लिये मधुर फल देता है और किसी से धन्यवाद की अपेक्षा भी नहीं करता। तुझको भी बड़ा बनने तथा दूसरों को छाया और आश्रय देने के लिये संकटों से जूझना पड़ेगा। बेटा! भूखे को अन्न और प्यासे को पानी पिलाना।'' नन्हा राजा अपने अशिक्षित पिता की जीवन का मर्म समझाने वाली प्रेरक वाणी को एकाग्र होकर सुनता था।

मॉं जब भगवान की पूजा के लिये राजा के साथ फूल चुनने जाती तो कहती थी- ""बेटा!  अधखिली पुष्प-कलियों को नहीं तोड़ना। उनका पूर्ण विकास होने पर ही उनका सौन्दर्य खिलता है और वे सौरभ बिखेरती हैं। राजा! जिस प्रकार अधखिली कली में सौन्दर्य और सुवास नहीं होता, उसी प्रकार अधूरा काम और अधूरा शिक्षण भी सफल नही होता, उसमें सुवास नहीं आती। इसलिये जिस काम को हाथ में लेना उसे पूर्ण करके ही छोड़ना।''

""राजा बेटा! जिस प्रकार फूल का पौधा फूल को पाल-पोसकर, विकसित कर भगवान की पूजा के लिए अर्पण करता है, उसी प्रकार मॉं भी अपने बेटे को लाड़-प्यार से पाल-पोषकर जगत की सेवा के लिये अर्पण करती है। इसलिये तू बड़ा और महान बनकर अपने जीवन की सुवास जगत्‌ में फैलाना और अपने जीवन को मानव समाज की सेवा में लगाना।'' इस प्रकार से मॉं अपने प्यारे राजा में संस्कारों का सिंचन करती थी।

कंगालियत से जूझते हुये किसी प्रकार से राजा का प्राथमिक शिक्षण समाप्त हुआ। माध्यमिक शिक्षा के लिये रत्नागिरी जाना पड़ता था। वहॉं के लिये पैसा चाहिये। गरीब परिवार के सामने यह एक बड़ी समस्या खड़ी हो गई।

एक दिन रात्रि को राजा सोया हुआ था। ब्राह्मण-ब्राह्मणी उसकी शिक्षा के बारे में चिन्तातुर थे। मॉं सोए हुये राजा के सर पर हाथ फेरती और उसके भोले-सलोने मुख को वात्सल्य प्रेम से एकटक देख रही थी। उसने ब्राह्मण से कहा- ""चाहे हमें अपने पेट पर पट्टी बांधनी पड़े, पर राजा को रत्नागिरी की पाठशाला में भेजना ही है। हम एक समय भोजन करके पैसा बचायेंगे और उसके लिये खर्च भेजेंगे।'' ब्राह्मण की भी यही इच्छा थी। इसलिये राजा को रत्नागिरी पाठशाला में भेजने का निर्णय कर ब्राह्मण-दम्पत्ति सो गया।

दूसरे दिन ब्राह्मण एक बैलगाड़ी तथा थोड़े-बहुत रुपयों की व्यवस्था कर रत्नागिरी जाने के लिये तैयार हुआ। भीगी हुई आँखों से मॉं राजा को समझाने लगी- ""बेटा! खूब पढ़ना और सावधानी से रहना।'' मॉं ने उसको छाती से लगाकर आशीर्वाद दिया। राजा ने भी मॉं के चरण स्पर्श किये और विदा ली। पिता भगवान को स्मरण करते और विघ्नहर्ता गणपति के स्तोत्र गाते हुये पुत्र को साथ लेकर विदा हुआ।

काल अपनी अविरत गति से चलता रहता है। राजा मई मास में ग्रीष्मकालीन अवकाश पर घर आया। माता-पिता आनन्द और उल्लास से भर गये। ग्यारह मीहने से उन्होंने कोई त्योहार नहीं मनाया था। राजा के आने पर पहली बार घर में मिष्टान भोजन बना। माता सारे महीने कुछ न कुछ नई बानगी बनाकर अपने राजा को खिलाती रही। क्योंकि अब फिर शीघ्र उससे अलग होना था। छुट्टियॉं समाप्त हुई और राजा वापस चला गया।

फिर ब्राह्मण-ब्राह्मणी का वही पुराना क्रम शुरू हो गया। कभी एक समय का खाना नहीं, कभी पूरे दिन का उपवास! कभी एक साथ दो-दो और तीन-तीन दिन के उपवास भी हो जाते! परन्तु हमारा राजा पढ़ता है, बड़ा कलेक्टर होगा, इन मनोहर स्वप्नों में उन्हें उपवास का दुःख नहीं होता।

चारेक मास के बाद ब्राह्मणी ने कहा कि- "तुम राजा की कुशल-खबर तो ले आओ।'' ब्राह्मण की भी ऐसी ही इच्छा थी। सत्यनारायण की कथा में उसे जो पैसे मिले थे, उन्हें उसने गांठ में बांध लिया। ब्राह्मणी ने कहा कि राजा को नारियल पाक बहुत पसन्द है। इसलिये उसने नारियल-पाक बनाकर ब्राह्मण की चादर के छोर पर बांध दिया। ब्राह्मण ने प्रातःकाल रत्नागिरी की राह पकड़ ली। पॉंच-छः घण्टे की यात्रा कर वह रत्नागिरी पहुंच गया।

सर पर पुराने ढंग की लाल पगड़ी, फटा हुआ अंगरखा और अंगोछा (छोटी धोती) पहिने हुये ग्रामीण ब्राह्मण को देखकर हाईस्कूल के शहरी लड़कों को कोतूहल हुआ। लड़के अर्द्ध-विश्राम में खेल रहे थे। इस विचित्र जीव को देखकर कोई उसका मजाक उड़ाते थे, तो कोई उपेक्षा करते थे। यह जगत का नियम ही है। गरीब की मजाक सभी करते हैं। ब्राह्मण की आतुर दृष्टि अपने राजा को खोजने पर लगी थी। दूर से राजा को आते देखकर ब्राह्मण उत्सुकता से उसे भेंटने आगे बढ़ा, परन्तु चतुर राजा ने अपने पिता के मनोभावों को पढ़ लिया। उसे लगा कि लड़कों को यदि यह मालूम होगा कि यह गंवार (ग्रामीण) उसका बाप है, तो वे उसका मजाक उड़ायेंगे। इसलिये वह उसका हाथ पकड़कर स्कूल से दूर एक पेड़ के नीचे ले गया।

पिता ने पूछा-""तू मुझे कहॉं ले जा रहा है? मुझे तेरे रहने का कमरा देखना है कि तू कैसे रहता है।'' राजा ने कहा- ""पिताजी! आप दूर से पैदल चलकर आये हैं। थके होंगे, कमरे में क्या करोगे? और वहॉं आने के लिए हॉस्टल सपुरिण्टेण्डेण्ट की आज्ञा लेने पड़ेगी। कहॉं इस व्यर्थ के चक्कर में पड़ोगे।''

बाप को दुःख तो बहुत हुआ, पर बेटा होशियार है, मन लगाकर पढ़ता है, प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ है, यह सब देखकर उसने अधिक आग्रह नहीं किया। चादर के छोर पर बंधा नारियल पाक उसके हाथ में थमाते हुए कहा- ""बेटा! हम गरीब हैं, पर अकेले खाने वाले स्वार्थी नहीं हैं। तू इसे अपने साथियों में बांटकर ही खाना।'' चादर के दूसरे छोर की गांठ से रुपये निकालकर भी उसे दिये और आशीर्वाद देकर विदा ली। वह अनिमेष नेत्रों से राजा को पाठशाला की ओर जाते हुये देखता रहा। उसे लगा कि लड़के में कुछ परिवर्तन हो गया है। इससे उसका अंतर्मन कहने लगा- "संभाल लड़के को, नहीं तो हाथ से चला जायेगा।'' ब्राह्मण भारी हृदय और बोझिल पैरों से विघ्नहर्ता का स्मरण करते हुये घर को लौट पड़ा।

"दिवस जात नहिं लागहि बारा' राजा बालक से किशोर हुआ और अब यौवन की देहरी पर पहुँच गया। उसने हाईस्कूल प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया। उसे छात्रवृत्ति भी मिली। माता-पिता के हर्षाश्रु (खुशी के आंसू) छलक उठे। आगे की पढ़ाई के लिये उसे बम्बई भेजा गया। तब बम्बई जाना आज के इंग्लैण्ड जाने के बराबर समझा जाता था।

राजा ने कॉलेज में भी खूब प्रगति की। वह अध्यापकों और विद्यार्थियों का प्रेम-पात्र भी बन गया। पर उसका घर की ओर आकर्षण कम होने लगा। पिता ने दिवाली की छुट्टियों में घर आने के लिये लिखा था, परन्तु उसने आर्थिक संकट के बहाने घर जाना टाल दिया। इस बीच वह एक श्रीमन्त की लड़की के प्रेम-पाश में जकड़ गया। अब वह प्रत्येक छुट्टी को खर्च की कमी या परीक्षा की तैयारी आदि के बहाने घर जाना टालता रहा और इन छुट्टियों को लड़की के पिता को प्रसन्न रखने के लिये उसके घर पर बिताने लगा। श्रीमन्त भी इस प्रतिभाशाली होनहार लड़के को अपना जामाता बनाना चाहता था।

उधर माता-पिता अपने बेटे की सफलता और उसके यशस्वी जीवन के लिये शिवजी का अभिषेक करते रहते थे। भगवान से उसे प्रथम श्रेणी में पास करने की प्रार्थना करते और उधर बेटा प्रेम-लीला करता था। मॉं बेचारी अपने आंसू पोंछकर अपने मन को मनाती कि अगली छुट्टी में मेरा राजा अवश्य ही आयेगा।

राजा के परिश्रम और माता-पिता की प्रार्थना से राजा बी.ए. में प्रथम श्रेणी में पास ही नहीं हुआ, अपितु सारी युनिवर्सिटी में प्रथम भी आया। राजा की इच्छा आई.सी.एस. के लिये इंग्लैण्ड जाने की हुई। लड़की के पिता ने सम्पूर्ण व्यय-भार उठाना स्वीकार कर लिया। चतुर और व्यवहारू लड़की ने राजा से कहा-""तुम्हें आई.सी.एस. होने के बाद तो शादी करनी ही है, तो शादी करके ही क्यों नहीं जाते?''

राजा के मन में एक बार आया कि माता-पिता को मिल आऊँ, पर फिर सोचा कि यदि पिता वापस न आने दें या विवाह की आज्ञा न दें तो!  इसलिये वह माता-पिता की आज्ञा लिये बिना ही श्रीमन्त की लड़की से विवाह ग्रन्थि में जुड़ गया।

जिस माता-पिता ने आँखों में प्राण लाकर, पेट पर पट्टी बान्धकर इस आशा से उसे पढ़ाया था कि बेटा उच्च-शिक्षा प्राप्त कर महान बनेगा, उनका सहारा बनेगा, राजा ने उनके हृदय पर ठेस लगाई। मॉं के अन्तर हृदय से झरते वात्सल्य भाव को पैरों के नीचे कुचल डाला। विवाह में मॉं-बाप की स्वीकृति तथा आशीर्वाद लेने की भावना और वैदिक धारणा को एक सुन्दरी के मोह में पड़कर ठोकर मार दी।

घर में मॉं के आँसू सूखते नहीं थे। मेरा राजा जरूर आयेगा, अब आयेगा, तब आयेगा, कब आयेगा? आँखें फ़ाड-फ़ाडकर बेटे की राह जोहती है और इधर बेटे की इग्लैण्ड जाने की तैयारी होती है।

राजा इग्लैण्ड जाने के लिए बम्बई जहाज घाट पर आ गयाहै। उसकी पत्नी और ससुर उसको विदाई देते और शुभेच्छा व्यक्त करते हैं। स्टीमर को देखते ही उसकी रत्नागिरी के बन्दरगाह की स्मृति ताजी हो गई, जब उसके माता-पिता उसको बम्बई भेजने आये थे और उसकी मंगल कामना करते थे।

उसे मॉं याद आई, मॉं का वात्सल्य, उसकी शिक्षायें, उसकी संजोई महत्वाकांक्षायें, उसके लिये सही यातनायें, उसका अंतःप्रेम उसके स्मृति-पटल पर एक साथ छा गये। एक बार उसके मन में आया कि वह जाकर पिता के चरण पकड़कर क्षमा मांगे। परन्तु फिर सोचता है कि मैं वापस नहीं लौट सकूंगा। सारी तैयारी हो चुकी है, टिकिट आ गया है। मुझे आई.सी.एस. होना है। फिर मुझ जैसा शिक्षित व्यक्ति ऐसे भावावेश में बहे! इंग्लैण्ड से लौटने पर माता-पिता को मना लूंगा। उसने इस प्रकार सारे चित्र-पट को विच्छिन्न कर डाला।

गॉंव के लोग ब्राह्मण दम्पत्ति से कहते थे- ""तुम्हारा लड़का प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ और अब विलायत जा रहा है। मुँह मीठा तो कराओ। जाने से पहिले राजा यहॉं तो आयेगा ही न? कहो- कब आ रहा है?'' मॉं सिसक-सिसककर रोती और बाप उसे धैर्य देता कि अवश्य आयेगा। सात हजार मील समुद्र पार जाना है, उसे कितनी तैयारी करनी पड़ती होगी? कितनी कठिनाइयॉं उठाता होगापरन्तु उसका मन कहता था- ""लड़का हाथ से चला गया,'' पर पत्नी से कैसे कहे? फिर भी उसके मुँह से निकल ही पड़ा- ""मुझे लगता है कि लड़का अपना नहीं रहा।''

इतने में राजा का पत्र आ गया कि आई.सी.एस. पढ़ने के लिये विलायत जा रहा हूँ। यदि समयाभाव से पत्र न लिख सकूं तो क्षमा करना।

पत्र सुनते ही मॉं के शोक के आँसू हर्ष के आँसुओं में बदल गये। वह पति से कहने लगी- ""देखो न, राजा ने हमें याद किया है। तुम व्यर्थ ही मेरे बेटे के बारे में कुंशकायें करते हो। मेरा राजा ऐसा नहीं है। मैं उसे खूब पहिचानती हूँ। ब्राह्मण बुद्धिमान था, पत्नी के हृदयाकाश में खुशी की एक झलक देखकर वह मौन हो गया। लगभग ड़ेढ वर्ष हो गया, पर उसका एक भी पत्र नहीं आया। अवश्य ससुर और पत्नी को वह पत्र लिखता रहता था।

जब से राजा विलायत गया, उसी दिन से ब्राह्मण ने शिवजी का अभिषेक करना आरम्भ कर दिया। राजा की बुद्धिमता, शिवजी की कृपा या दोनों के प्रताप से राजा आई.सी.एस. होकर हिन्दुस्तान आया और नासिक के कलेक्टर के रूप में उसकी नियुक्ति भी हो गई।

उस काल में आई.सी.एस. का बहुत बड़ा सम्मान था। राजा का फोटो अखबारों में छपा। राजा के छोटे से गॉंव में तो अखबार कहॉं से आता! परन्तु गॉंव के किसी व्यक्ति को वह अखबार मिल गया। ऐसे कौन माता-पिता होंगे, जो अखबार में अपने बेटे का फोटो देखकर खुश न हों? राजा के माता-पिता को खुशी हुई। पिता भगवान का उपकार मानने लगाकि उसकी आकांक्षा पूरी हुई, उसका बेटा कलेक्टर बना। पर उसका सुख उसको नहीं मिला। वह पूरी तरह समझ गया था कि अब पुत्र उसका नहीं रहा। पर रोये किसके पास ?

जिस गॉंव का कोई पुलिस का सिपाही भी नहीं हुआ, वहॉं का एक व्यक्ति कलेक्टर बन गया! उसको इतना भी याद नहीं आया कि मेरे मॉं-बाप ने पेट पर पट्टी बांधकर मुझे पाला-पोसा और पढ़ाया है। उनके कष्टों और आशीषों के कारण ही मैं इतना बड़ा अफसर बना हूँ। तो कम से कम उनके दर्शन तो कर आऊँ! नहीं तो एक पत्र ही लिख दूँ। पिता को इसका बड़ा दुःख था।

एक दिन ब्राह्मण-पत्नी ने ब्राह्मण को भोजन कराते हुये जिक्र छेड़ दी कि हमारा राजा कलेक्टर बन गया है। उसने विवाह भी कर लिया है। चलो, एक बार उसे मिल आवें। अपना राजा यदि मूर्ख बन गया या हमें भूल गया तो हमको भी क्या वैसा ही बन जाना है? ब्राह्मण ने सुना पर मौन साध ली।

"कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।' ब्राह्मणी की आँखें और अन्तर्मन वात्सल्य-प्रेम के कारण पुत्र को देखने के लिये तड़पते थे।

ब्राह्मण ने अपने मन की अन्तर्पीड़ा को दबाते हुये गंभीरतापूर्वक कहा- ""राजा की मॉं! तू भूल क्यों जाती है कि हमने पेट पर पट्टी बांधकर, ठण्डे पानी से अपनी क्षुधा शान्त कर, एक साथ दो-दो, तीन-तीन उपवास कर, उसकी शिक्षा के लिये कितना कष्ट उठाया? हमने क्या-क्या वेदनायें सहन नहीं की? आज इस उम्र में जब तुझे राजा की बहू से सेवा लेनी थी, राजा हमको भूल गया है। राजा कलेक्टर हो गया तो क्या इससे मॉं-बाप हलके हो गये? उनकी कीमत घट गई। क्या हम मॉं-बाप होने की योग्यता ही खो बैठे हैं? क्या राजा को पता नहीं कि हम दरिद्रता की किस पीड़ा में जी रहे हैं? पहिले हमारे सामने एक ही लक्ष्य था कि राजा को पाल-पोसकर बड़ा बनाना और उच्च  शिक्षा देना, इसलिये उस समय हमें दुःख, दुःख नहीं लगता था। मन में एक अप्रतिम उत्साह, आकांक्षा और खुमारी थी। पर, राजा की मॉं! आज यह दुःख सहन नहीं होता! कौन जानता है, भगवान ने हमें यह सजा क्यों दी है? अब तो प्रभु इस जगत से उठा लें तो छुटकारा हो!'' ब्राह्मण अत्यन्त व्याकुल हो गया। अब तक दबाये हुये आँसुओं को मानो खुला मार्ग मिल गया। वह बालक की तरह रोने लगा। पत्नी की आँखें भी छलक आई। उससे पति की मनोव्यथा सहन नहीं हो सकी। परन्तु ब्राह्मण को आश्वासन देने के लिये उसके पास शब्द नहीं थे।

एक दिन ब्राह्मण प्रातः सूर्य भगवान को अर्घ्य दे रहा था। इसी समय ब्राह्मणी ने आकर गिड़गिड़ाते हुये गद्‌गद्‌ कण्ठ से लड़खड़ाती हुई आवाज में अत्यन्त नम्रता से कहा- ""आज तक मैंने आपके दुःखों के साथ समरस होकर आपसे कभी कुछ नहीं मॉंगा, परन्तु आज मुझे आपसे कुछ मांगना है। मुझे विश्वास है कि आप मुझे निराश नहीं करेंगे। हमको गृहस्थ किये पैंतालीस-पचास वर्ष हो गये। राजा भी अट्‌ठाईस-तीस वर्ष का हो गया है। इसीलिये मरने से पहिले एक बार उसे देखने की इच्छा है। चाहे जैसे भी हो, मुझे एक बार उसके पास ले चलिये।'' ऐसा कहते-कहते उसकी आँखें गीली हो गई।

ब्राह्मण, पत्नी के हृदय की इस वेदनापूर्ण मॉंग को अस्वीकार नहीं कर सका। उसने उसे आश्वस्त किया- "तू चिन्ता न कर, थोड़े ही दिनों में हम राजा को देखने के लिये नासिक जायेंगे।'

ब्राह्मण सोचने लगा, नासिक जाने के लिये पर्याप्त खर्च चाहिये। अन्त में दोनों ने निश्चय दिया- "हमारी यह अन्तिम अवस्था है। इसलिये नासिक की यात्रा करेंगे, गोदावरी में स्नान करेंगे और अपना शेष जीवन उसी तीर्थ-भूमि में व्यतीत करेंगे।'' उसने अपना घर बेच डाला। उन पेड़ों और बगीचे को बेच डाला, जिन्हें उसने जीवन भर प्रेम से सींच-सींचकर पाला था, जिन पर उसकी पुत्रवत्‌ ममता थी। जो उनकी वृद्धावस्था का एकमात्र सहारा थे, जिन्होंने जीवन भर उन्हें छॉंह दी थी और जिन्होंने उनकी गरीबी के दिनों में उन्हें जीवित रखा था, ब्राह्मण ने उन्हें नमस्कार किया और खरीददार से विनय की कि वह उन्हें पानी पिलाता रहे। दोनों ने बाप-दादा से उत्तराधिकार में मिले और अपने खून-पसीने से खड़ी की हुई इस छोटी सी जायदाद को अन्तिम नमस्कार किया और थोड़े से आवश्यक कपड़ों की पोटली लेकर नासिक के लिये प्रयाण किया। (अब आगे क्या होता है! पत्थर-दिल को भी रुला देने वाला वह घटना चक्र अगले अंक में पढ़ें।) पाण्डुरंग शास्त्री आठवले

 

जीवन जीने की सही कला जानने एवं वैचारिक क्रान्ति और आध्यात्मिक उत्थान के लिए
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अधिकतर दुःख स्वयं की असावधानी से होते हैं।
Ved Katha Pravachan - 76 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

 

 

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