इतिहास के आंख खोलने से लेकर आज तक अबाध गति से आगे की ओर बढता हुआ हिन्दुत्व महानदियों की भांति ही शताब्दियों से विचार और कर्म की अनगिनत धाराओं को लेकर चलता आया है। इसने विविध आध्यात्मिक और सामाजि आन्दोलनों को जन्म दिया है। इसी प्रकार हिन्दुत्व बहुसंख्य भारतीयों का धर्म रहा है।
वर्तमान युग के हिन्दू दो श्रेणियों में बांटे जा सकते हैं। एक वे जो भारतीय इतिहास को अंग्रेज की दृष्टि से देखते हैं। उनके मस्तिष्क के अनुसार हिन्दू समाज का आरम्भ मुसलमानों के आने से दो-चार सौ वर्ष पूर्व से हुआ है। उससे पहले वे क्या थे, कुछ नहीं कहा जा सकता। यूरोपियन इतिहास लेखक तो यह कहते हैं कि लगभग दो सहस्र वर्ष पूर्व यहॉं गुप्त थे, मौर्य थे, जाट थे।
धर्म और मजहब पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। स्मृतियों में देखिये। उनमे उन चीजों का नामांकन मिलेगा जो धर्म के अन्तर्भूत हैं। कुछ ऐसी बातें हैं जिनकों धर्म का लक्षण कहा गया है और सार्वभौम तथा सर्ववर्णिक धर्म कहा गया है। अर्थात् ये ऐसी बातें हैं जो सब मनुष्यों के लिए धर्म हैं। इस सूची में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, दया, क्षमा, शौच, आर्जव के नाम आते हैं।
इससे पूर्व कि हिन्दू धर्म की विशेषताओं पर कुछ लिखा जाए, यह सोचना पड़ेगा कि "धर्म" शब्द "हिन्दू" के साथ ही क्यों? धर्म का अर्थ क्या है? संसार में जो शेष मनुष्य हैं, वे स्वयं को हिन्दू क्यों नहीं मानते? इन पर धर्म शब्द फिट क्यों नहीं होता? संसार में अनेक जातियॉं और मजहब हैं, मत-मतान्तर हैं, रिलीजन्स हैं। किन्तु "धर्म" शब्द का प्रयोग केवल हिन्दू के साथ होता है। ऐसा क्यों?